Friday, June 19, 2020

PHASE OUT

PHASE OUT


I was dealing with the rough patch of my life, many thoughts came to visit my thought process and disturb the mood. Often there was a burden on my heart. Most people in my close circuit and relatives thought of me as “a child born with a silver spoon” even though I came from a very humble background and my parents are just above the lower middle class with three kids and a family to support. As an elder son my father has the responsibility to take care of everyone around him no matter what sort of personal or professional problem he is dealing with.


I was nurtured and brought up like I too had to one day steer the whole family as efficiently as my father did all these years. In my growing age, I learned to absorb and adsorb both. But I too have limits. My nature shifted towards too low and I make decisions on my own calculations.


In that process I came to love the beautiful companion of mine “Night” deep dark silent yet faithful loyal to me, never ever anything can change how I feel about her and how much I enjoy to spend my time in her companionship.


In a few days, almost two years will be completed. I will never forget that accident and now I think what happened that night must be shared, never wanted but sharing was important just because how things are building up in me against what I don't want. There are times when my family is reminded of the pain brought about by that day.



One night as usual I decided to take the ride back to the workplace, my mood was off and was never in a joyful mood. I boarded on the bus around 11:30 PM (my usual time and choice of the ride). A Peaceful journey was started and almost half an hour later many fellow passengers fell asleep. I was just behind the conductor's seat and surfing the net.


Around 2:00 AM our bus was crossing a bridge on Sai River situated 10km before Raebareli on Prayagraj Raebareli Highway. Suddenly in a split moment, we had a head-on collision with the opposite side truck heading straight towards us and our driver jumped off the seat and our bus was still on the move, the side of roads was 25-30 ft deep and we had an accident and diverted towards deep fall. 


When the accident took place three persons reacted well, my bus driver who fell off the seat conductor pulling his bag tight and a fellow passenger who rushed the driver seat and applied brakes.


Many were badly injured, deep bath in blood, people screaming, pain, mirror pieces everywhere. What next? Dialed  100 and police PCR vans arrived on the scene after 30minutes in a while the highway was slowly jamming up and it took an ambulance another 30 minutes to reach us.


On that very day, I had encountered such a close touch and go, I had a head injury, strained legs, even now my back even sore on jumps, blood on hand, helping others to provide first aid, shock, physical discomfort thoughts that were forcing me to deal with life after an accident.


After 1 and half hours later we were rushed to the nearest Prathmic Swasth Kendra (CHC), seeing the procedure I opted to go only for the pain killer and bandages to keep me going for the next few hours. I kept additional doses of painkiller shots from the doctor in case of an emergency. Police after spending 2 hours at the CHC took me to the bus stop on my request as I don't want to get admitted there.


Around 5 AM I resumed my journey and asked my room partner to skip his early morning routine and stay in the room. When I reached the room I ensured to take the additional painkillers, removed the bandages around me, and pictured the scene that it was nothing more than a scratch.


I entered the room, met with others, and took the room partner with me to the nearest hospital. there I was stitched and again I asked for the pain killers to lower down the case status priority from dangerous to normal also for stabilizing my thoughts to feel uneasy, confused, and overwhelmed.

                                                     

Next 35 days I instructed everyone not to share the news with anybody because the pain was that factor I can repress but the injury mark needs time to normalize.


“If you don't see it you don't believe the situation” is a hardcore truth of society.


That accident is now a part of our family history, a part of who I am, like everything else experienced in this journey called life. From time to time ongoing memories of that accident pop up into my consciousness leaving them feeling helpless and stressed.


Depression sometimes acts as a hindrance in precluding recovery to a normal life after the accident. Even if it's been years one can feel like things should be 100% back to normal but they're not – just think there are others dealing with this too.


Forgiveness may be a concept to think about. Forgiving the other person, or forgiving yourself – or both. In my case ?????

Wednesday, June 17, 2020

मनोभाव

मनोभाव

एक बार की बात है 2 भाई – अवधेश और विक्रम संगम घूमने गए। वहां विशाल नदी को देख कर दोनों का मन नदी में स्नान का किया। यही सोचकर दोनों भाई नदी में नहाने चल दिए। लेकिन नदी उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा गहरी थी। विक्रम तैरते तैरते थोड़ा दूर निकल गया, अभी थोड़ा तैरना शुरू ही किया था कि एक तेज लहर आई और विक्रम को दूर तक अपने साथ ले गयी।

विक्रम डर से अपनी सुध बुध खो बैठा गहरे पानी में उससे तैरा नहीं जा रहा था अब वो डूबने लगा था। अपने भाई को बुरी तरह फँसा देख के अवधेश जल्दी से नदी से बाहर निकला और एक लड़की का बड़ा लट्ठा लिया और अपने भाई विक्रम की ओर उछाला। लेकिन दुर्भागयवश विक्रम इतना दूर था कि लकड़ी का लट्ठा उसके हाथ में नहीं आ पा रहा था।

इतने में अनेक व्यक्ति वहां पहुँचे और विक्रम को देखकर सब यही बोलने लगे – अब ये नहीं बच पाएंगे , यहाँ से निकलना नामुमकिन है। यहाँ तक कि अवधेश को भी ये अहसास हो चुका था कि अब विक्रम नहीं बच सकता, तेज बहाव में बचना नामुमकिन है, यही सोचकर सबने हथियार डाल दिए और कोई बचाव को आगे नहीं आ रहा था।

अभी सभी लोग किनारे पर बैठ कर विक्रम का शोक मना रहे थे कि दूर से एक सन्यासी आते हुए नजर आये उनके साथ एक नौजवान भी था। थोड़ा पास आये तो पता चला वो नौजवान विक्रम ही था। अब तो सारे लोग खुश हो गए लेकिन हैरानी से वो सब लोग विक्रम से पूछने लगे कि तुम तेज बहाव से बचे कैसे?

सन्यासी ने कहा कि आपके इस सवाल का जवाब मैं देता हूँ – ये बालक तेज बहाव से इसलिए बाहर निकल आया क्योंकि इसे वहां कोई ये कहने वाला नहीं था कि “यहाँ से निकलना नामुमकिन है”, इसे कोई हताश करने वाला नहीं था, इसे कोई हतोत्साहित करने वाला नहीं था। इसके सामने केवल लकड़ी का लट्ठा था और मन में बचने की एक उम्मीद बस इसीलिए ये बच निकला।


Saturday, June 13, 2020

बस एक शाम

बस एक शाम

लगता है रात और उसका मेरे साथ कुछ ज्यादा ही बेहतर होता जा रहा है | जहाँ एक ओर आज की रात में ख़ामोशी की कमी है , वही आज तेज हवाये अपना मधुर संगीत गा रही थी | आज चांदनी चादर तो थी मगर झिलमिलाते तारे  नदारत | आप को छू कर गुज़रती यें हावये आपको किसी ख्वाब में ले जाने को आतुर थी ,  पर शायद आज मेरा साथ निभाने को सिर्फ बादल थे | मन तो करता है कुछ नया लिखू पर मेरा और इस रात क साथ ..एक अलग अंदाज है...मेरी जिंदगी में सबसे ज्यादा रात की कशिश  है ......... यादों के गलियारों में टहलते हुय यूँही एक शाम की बात थी जो सामने से गुजरे तो जमाना हो गया पर अब भी उस शाम के बारे में सोचता हूँ तो दिल को हमेशा सुकून ही मिलता है|

एक सुस्ताई शाम में , जब घर लौटा और आराम कुर्सी पर आकर बैठा ही था और चाय की तलब जाग ही रही थी की उन्होंने चाय की प्लेट सामने रख कर चुपचाप साथ में आकर बैठ गई और बस हम एक दूसरे को निहार रहे थे , उनकी आँखे शायद अब भी नम थी और मेरा दिल उन्हें यूँ देख कर बोझिल| 

तभी उनकी ख़ामोशी टूटी..... और धीमे से बोली :- 

जानते हो मैं आप से शिकायत नहीं कर रही पर आपको कभी याद नहीं रहता और हर वक़्त आप हमे अकेला छोड़ कर चले जाते है......आपका फ़ोन भी नहीं लगता...... आज पूरे दिन आपका फ़ोन कितनी बार लगाया पर आप न जानें कहाँ बिजी थे........आप सुबह मेरे से नाराज हो कर भी चले गये थे , कितना समझाना चाहती थी आपको पर आप .........." और आगे क अल्फाज़ो को उनके आँखों से बहती धारा ने समेत लिया और वो शब्द कहीं डूब गये  और उनकी आँखों से कुछ बह गया |

हम अपनी खुर्सी से खड़े होकर उनके पास आये और उनके गुमसुम चेहरे पर बनी लकीरो को पोछा और अपने चेहरे पर हलकी मुस्कान लेकर उनसे बोले आप की तबियत नहीं सही थी तो सोचा आज की चाय हम बना लेआप ने कल भी नहीं बताया की आपको कमज़ोरी है...और एक दिन बिना उठाये आपको अगर खुद चाय बना लिया तो क्या आफत आ गई .....और ऑफिस में आज इंस्पेक्शन की वजह से बिजी था और फ़ोन डिस्चार्ज. ...और जब खाली हुवा तो सीधे आपके पास आ गया.......माफ़ी मुझे मांगनी चाहिए आपसे  

उनके लिए साथ लाई दवा उनके हाथों में रखा..... और उनको बांहो में भरा........आप जिंदगी का जरुरी हिस्सा है और आप ही  याददाश्त है हमारी..आपके बिना दिन की शुरुवात हमारी हो ही नहीं सकती ये तो आप भी जानती है.... आपको अकेला नहीं छोड़ा था ना ही नाराज़ था.... जल्दी थी बस , आपके लिये नोट तो फ्रिज पर रखा था......और आपकी ख़ामोशी हमारी जान ले लेगी अब थोड़ा मुस्करा भी दे

उस वक़्त आई उनकी चेहरे पर वो ख़ुशी आज भी याद आती है जब आज वो हमसे युही मुस्कुरा कर हर शाम मिलती है , अजीब है यु एक दूसरे का ख्याल रखना बिना कहे मगर शायद यही प्यार है……………………..

Thursday, June 11, 2020

नीम का पेड़


नीम का पेड़

घर से शहर को जाते मुख्य रास्ते पर एक कोने में घना एवं छायादार बुजुर्ग नीम का पेड़ बेतरतीब सा खड़ा था, अपने आसपास रहनेवालों के लिए घर के किसी बुजुर्ग,किसी हमराज या पीढ़ियों की यादों का आईना , किसी की आस्था तो किसी के लिए कोई पेड़ बरकतों का पिटारा जिसके नीचे एक बड़ा चबूतरा बना था। उस परिवार का हर शख़्स पेड़ के नीचे बने आरामदायक चबूतरा पर बैठकर अपने दिन भर की थकान मिटातासुस्ताता और फिर अपने रास्ते चल देता ,उस रास्ते से गुजरा हर बचपन कुछ समय के लिए इस वृक्ष की छाया का आनंद जरूर लिया होगा पेड़  की उम्र मेरी उम्र से ज्यादा रही होगी  क्योंकि  मैं ने  अपने बचपन के होश से अब तक उसे  वैसा ही पाया था | उसकी आँचल घर में मूक माँ के आँचल जैसी थी शीतल  छांव और रूह का  सकूँ प्रदत्त करती|

उसकी जड़ें घर की नींव जैसी ही मजबूत होंगी मगर कुछ तो बदल सा गया था ,अब उस घर मेंभाइयो के आपसी बट-वारे में मकान का नया हिस्सा लगना था और संशय ये था जमीन के एक टुकड़े पर वो बेतरतीब सा बेबस विछिप्त बुजुर्ग पेड़ की जीवन लीला का अंत का निर्णय |


आज उस पेड़ को अपने वजूद की कमी खलती  होगी, परिवार के बुजुर्ग जिनका वो हर सुख-दुख का साथी एक समय वो भी था जब यह पेड़ ही उनके घर की पहचान थी। आस-पास के पेड़ों की बिरादरी में इस पेड़ की बड़ी इज्जत थी | तब तो इतनी बाउंड्रीवॉल ही घेरा था। सब परिवार एक-दूसरे से मिलजुल कर रहते थे। इस पेड़ के नीचे ही दादा जी कहानी-किस्से और चौपाल लगाते थे। अक्सर लोग इस पेड़ के नीचे बैठकर घंटों बातें किया करते, बैठकों का जलसा होता ,प्रयोजन में एक अलग रुतबा होता , कभी कभार एक दूसरे की पीठ पीछे बुराई करते किंतु पेड़ सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहता। उसे इंसानी  फ़ितरत  का क्या वास्ता वह स्थिर खड़ा अपनी शाखों से निरंतर अतिथियों को हवा एवं अपने पत्तों से छाया देने में कोई कसर नहीं छोड़ता |

‘‘पेड़ भी अब वैसी छाया कहां देते? अब इसे ही देख लो कितना मोटा हो गया है परंतु ठीक से छाया तक नहीं दे रहा।’’ एक भाई


हां !’’ दूसरा भाई उस पेड़ की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘देखो तो सही कितना घना है फिर भी ठीक से छाया नहीं दे रहा। ऐसे पेड़ तो धरती पर बोझ हैं। ’’


‘‘इसको तो काटकर लकड़ी जलाने के काम में लेना चाहिए, कितना मोटा पेड़ है?’’ दूसरे ने पेड़ के तने की तरफ देखते हुए कहा।

पेड़ के कट जाने पर जमीन भी समतल हो जाएगी वहां एक कमरा आराम से निकल आएगा अभी तो इसकी पत्तिया और डाल घर को गन्दा किये रहती है , कट जाने के बाद साफ़ सुथरा लगेगा घर


पेड़ ने जैसे ही यह बात सुनी उसके दिल की धड़कन बढ़ गई, किन्तु उसने हवा करना जारी रखा। पेड़ उनकी बातें सुनकर थोड़ा उदास हो गया किन्तु अभी तक धैर्य बनाए रखा था।


तभी एक भाई की पत्नी, उस पेड़ के नीचे आकर बैठे। महिला बोली - ‘‘आपकी मां को समझा देना मुझसे ताने में बातें नही करे !’’ महिला की आवाज थोड़ी तेज थी, ‘‘मैं जब से ब्याह के आई हूं, तब से महारानी साहिबा के बड़े ठाठ हैं। बना बनाया खा-खाकर इस पेड़ की तरह मोटी होती जा रही है। ऊपर से ताने मारना नही छोड़ती।’’ बोलते हुए औरत की सांसे फुल गई


‘‘तुम तो शांत हो जाओ शांता की मां तुम क्यों इस पेड़ की तरह अकडू बन रही हो? घर-परिवार में छोटी-बड़ी बातें होती रहती हैं।’’ आदमी ने पत्नी की बातों का रटा-रटाया जवाब देते हुए पेड़ की तरफ देखा।
पेड़ निरंतर उनकी बातें सुनते हुए अपने पत्तों से हवा करते जा रहा था।

कुछ देर पति-पत्नी लड़ते रहे, फिर उठकर वहां से चल दिए।

पेड़ की आंखों से आंसू बह रहे थे